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गुस्से की पोटली

गुस्से की पोटली रात को बांध के सोई थी, जो सुबह मेरे हि सिरहाने रखा मिला। पर कुछ बदला सा था। रात को जो मैने पोटली मे बांधा था उसमे तपीश ज्यादा थी, जो सुबह कम हो गई थी। मैने सोचा थोडी आंच पे सेक दुंगी तो बिल्कुल सही हो जायेगा। एकदम तुरंत असर करेगा। आंच मे सेकते सेकते मन दिमागी लडाई करने लगा उस शक्स से जिसके लिए ये पोटली तैयार हो रही थी। 
उसके सवाल मैने पूछे जवाब भी मैने दिये। फिर से एक सवाल फिर से आग उगलता एक जवाब। ये शिलशिला चलता रहा।
दिमागी लड़ाई के बाद असल मे मै लड़ने के लिए तैयार थी। 
उन सारे अस्त्र शस्त्र का क्या फायदा जब युद्ध भूमि ही ना मिले?
मै सवालो के इन्तजार मे बैठी रही। मन मे सारे जवाब तैयार थे।
दिन ढलता जा रहा था और पोटली कि आंच मुझे जलाये जा रही थी। न जाने कब वो तपीश कम होती गई। मैने अपने आप को रोता हुआ पाया। आसूं बंद नहीं हो रहे थे, और उनकी रफ्तार इतनी ज्यादा नहीं थी कि उसमें गुस्से की पोटली बह जाये। 
सूरज सो चुका था। तारें जवान हो रहे थे। 
पोटली वाले गुस्से को मैं आटे मे गुथ के रोटियां सेंक रही थी।

Holding on to anger is like grasping a hot coal with the intent of throwing it at someone else; you are the one who gets burned- Buddha

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