दोपहरी

जब सूरज सर पे हो और धर मे एकदम सन्नाटा छाया हो तो दोपहर काटनी पड़ती है। वो दोपहर एकदम अकेला होता है, और उससे भी अकेले हम होते हैं। दिन मे भी बहुत से shades होते है। सुबह एकदम शांत समुंद्र के जैसी ना जाने कितने राज छुपाये आती है। जब दिन चड़ना शुरू होता है तो सुबह की मासूमियत कहीं गुम हो जाती हैं। और रात हमेशा नसे मे आती है।
सूरज को भागने की जल्दी होती है भी कि नहींं, ये कहना मुश्किल है। उन्हें दोपहर में गुस्सा बहुत आता होगा तभी मुहाने पे बैठ के उबलते रहते है, और ऊसकी धीमी आंच मे हम पकते है। 
दोपहर कि सन्नाटे के साथ बहुत अच्छी दोस्ती है। ये अभी अभी कि दोस्ती है नहीं जो एक हवा के झोंके से टूट जाये ये दोस्ती बहुत पुरानी जान पड़ती है जिसमें कभी कभी अनबन हो सकती है पर life time का breakup नहीं हो सकता। 
दोपहरी के बहुत सारे राज है जो वो किसी को बताती नहीं वो बस इन्तजार कर रही हैं कि कोई उसके राज बिना बोले पढ़ जाये, वो मुहावरे कहे और कोई उसे एक वाक्य समझे। पर दोपहरी को ये नहीं पता कि इन्तजार दो धारी तलवार होती हैं।

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