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हुर





वो एक चाँद है 
जो सूरज से छिपते-छिपाते
आके मेरे छत पे खड़ी है।
बादलों से पर्दा नहीं करती
पर हां, हवाओं से थोड़ी बहुत शरमाती जरूर है।
पलकें झपकाना गवांरा नहीं,
कहीं सपने पंख लगाके उड़ ना जाये,
तो बस, वो खुली आँखों से ख्वाब देखती हैं।
बारिश से धुल कर 
नई बनती हैं और, 
फुलों सा खिलखिलाती हैं।
ये हुर अपना नूर खुद बनाती हैं।





 

Comments

Unknown said…
Hayyee me marjawaan!
suruchi kumari said…
😙😙😙😙😙

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कमरा नंबर 220

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