दिलीप साहब

                   (Picture from wikipedia)
 


फूलों के शहर में खीला एक सूरज

अपने अंदाज से रौशनी बिखेरने को

पेड़, पहाड़, बागीचों से घिरा दिन,

और, किस्से कहानियां सुनते बितती रातों मे

वो अपनी कहानी बुनते थे।

माँ के पिछे चक्कर लगाना,

भाईयों के साथ खेलना और,

बदमाशी करके दादी के आँचल में छुप जाना,

उन्हें ये सब बड़ा भाता था।

उगते सूरज की तरह

वो अपना एक-एक कदम बढाते चले गए।

वो कहते है ना कि, चढ़ते सूरज से आंख मिलाना थोड़ा मुश्किल है क्योंकि,

नैन लड़ ज इहे तो मनवा मा कसक होईबे करी।

शिखर कि बुलंदियों पर और,

पाँव जमीं पे टिकाए

वो अपनी कहानियां पिरोते गए।

इस उतार, चढाव के सफर मे उन्होंने

हमें प्रेम, दोस्ती, परिवार, मेहनत और लगन के गुर सिखाए।

अपने मुहब्बत कि रौशनी आकाश मे बिखेरते हुये ये सिखाया है कि,

जवां है मुहब्बत, हसीं है जमाना

लुटाया है दिल ने खुशी का ख़जाना।

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