स्टेशन और ट्रेन

 



बातों के अनवरत सिलसिलों 

के बीच 

कुछ अल्फाज अधूरे रह जाते है, 

और, फोन की घंटियां एक बार फिर 

बजतीं हैं।

फोन के उस तरफ का 

पसरा सन्नाटा 

शाम को धीरे धीरे

चांद की चादर उढ़ा के रात करती है।

और, फोन के इस तरफ की हलचल 

अंधेरे की चादर उतार कर

रौशनी करती है।

चन्द बातों में खत्म होने वाले किस्से

पूरे दिन को प्यार से सीचते हैं,

और, शाम के खिले फूल 

रातों को महकाते हैं।

अक्सर दो अलग चीजें मिल के 

एक खूबसूरत रिश्ता बनातीं हैं, 

पर उनका बिछड़ना 

दोनो चीजों का 

अस्तित्व चुरा ले जाता है।

जैसे चाय और खुल्हड, स्टेशन और ट्रेन।






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