Skip to main content

गांव का छठ

 छठ लोक आस्था का महापर्व है। छठ पूरा का पूरा इमोशन है। छठ करने की एक लम्बी तैयारी होती है, और इसकी शुरुआत गेंहू चुनने और सुखाने से होता है। गेहूं सुखाने और उसे कौवो से बचाने कि जिम्मेदारी मैने बचपन में सहर्ष स्वीकारा है। गांव में छत के ऊपर के घर का छज्जा निकला हुआ था, जिस वजह से छत के किनारे में छाव बनी रहती थी। सुबह में पश्चिम की तरफ चेहरा करके हाथो में डंडा लेकर बैठा करती थी। कुछ किताबे भी हुआ करती थी जिन्हें शायद ही मैने कभी छुआ हो। गिलहरी के आने पर जोर से डंडा पटका करती थी। कभी कभी तो ' ये गिलहरी' करके चिल्लाती भी थी। सूरज के चढ़ने के साथ साथ हम छत के कोने बदला करते, ताकी छाव में बैठा जा सके। सूर्य जब पश्चिम का रस्ता पकड़ता तो हम पूर्व की तरफ मुंह करके बैठते। बीच बीच में खाना खाने के लिए एक छोटी ब्रेक लिया करते थे। 

गेहूं सुखाने के बाद दूसरा पड़ाव है उसे पीसना। गेहूं मील में नहीं दिया जाता था। घर की सारी औरतें नहा के घर में ही जाता मे गेहूं पीसा करती थी। जाते के दोनो तरफ बैठी फुआ, मम्मी, मामा, मैं और दीदी गेहूं को गीत सुना के उसे आटे में बदलता देखते थे। 

छठ मुख्य रूप से ४ दिनों का पर्व है। पहले दिन नहाय खाय ।

इस दिन घर में मम्मी नहा के पूजा करने के बाद जोड़ा सिंदूर लगा के खाना बनाती। कद्दू का सब्जी, चना का दाल और चावल। इस खाने में जो स्वाद है उसे शब्दों में लिखना बहुत मुश्किल काम है। छठ का खाना, प्रसाद सब एक से बढ़ कर एक हुआ करते है। 

दूसरा दिन लोहड़।

जब मैं गांव में थी मुझे इस दिन का बेसब्री से इंतजार हुआ करता था। कारण, तालाब में नहाने का मजा। मम्मी, फूआ, मामा, बहन और मैं सुबह सुबह अपने कपड़े झोले में रख के तैयार हो जाया करते थे। जब घर से निकलते तो मामा कहती " हामार मटिया वाला  कटोरवा ले ले बाडू"। हम अपनी धुन में इतने मशगूल हुआ करते थे की हर बार उनका मिट्टी लेना भूल जाते थे। फिर दौड़ के जाते और उनका मिट्टी ले आते। 

तालाब में नहाने के बाद हम सब साथ में सूर्य भगवान को दंडवत देते सूर्य मंदिर जाया करते।  वहा से वापस आके फिर तालाब में डुबकी लगाते, उसके बाद ही घर जाते थे। 



शाम के वक्त मिट्टी के चूल्हे पर मम्मी खीर बनाती और मैं दूसरे चूल्हे पर रोटी। मम्मी अपना पूरे दिन का उपवास खीर खा के तोड़ती और, कुछ खीर मेरे और भाईसाहब के लिए रखती थी। हम दोनो उसमे अपना हिस्सा खाते ।

 घर का आंगन बहुत बड़ा था। इस वजह से मुझे लगता, सर्दी ज्यादा लग रही है। साल का पहला स्वेटर छठ में ही निकलता था। 

जिनके यहा छठ नही होता था, हम और मामा उनके यहां रात को प्रसाद देने जाते। रास्ते में दुनिया भर की बाते करते और हमारी बात सुबह जल्दी उठें के बा पर आके खत्म हो जाया करती थी। 

रात में ११ बजे सोना और मम्मी का २ बजे जग जाना अभी तक याद है। प्रसाद बनाने के लिए जल्दी जागना होता था। प्रसाद बनाने का सफर बहुत ज्यादा रोमांचक है। सौभाग्य से मुझे २ बार ये मौका मिला है। वैसे तो रात में जागना मुश्किल है। पर छठ की बात ही अलग है खुदबखुद नींद खुल जाया करती थी। मैं मम्मी के साथ बैठ के पहले ठंड के बारे में बाते करती, ताकी ठंड कम लगे। फिर हमारी बाते गुड़ और आटे में घुल के पूरी गांव का सैर करके सुबह की किरणों के साथ आसमां में खो जाया करती थी।

जो लोग छठ नही कर रहे होते थे उनका काम होता था खाना बनाना और खिलाना। मुख्य रूप के कद्दू की सब्जी ज्यादा बना करती थी क्युकी वो छत पे पसरे मिला करते थे। 

घर का बड़ा सा आंगन गोबर और मिट्टी से लीपा जाता था। और उसकी सोंधी सुगंध - आहा!

 शाम को सब लोग घाट  पर जाने के लिए तैयार होते और पापा माथे पे दउरा लेके निकलते। जब भाईसाहब बड़े हो गए तो दऊरा उनके सर पे सरका दिया गया। 

शाम का डूबता सूरज और तालाब में खड़े ढेर सारे व्रती, मनमोहक दृश्य। शाम को अर्घ्य देके हम सब वापस घर आ जाते और सुबह का इंतजार करते। 



सुबह ४ बजे जागने से लेके नहाने और घाट के लिए तैयार होने तक में ठंडी कर्पूर की तरह उड़ जाया करती थी।



 

पानी में खड़े लोग सूरज के जागने का इंतजार करते और उनके जागते ही उनके मुखमंडल निहार अपना व्रत पूरा करते। सुबह में घाट पर चाय मिला करता था जिसे मैं प्रसाद समझ के पीती थी। ढेर सारे प्रसाद और आशीर्वाद के साथ हम सब वापस घर आ जाते। 


यादें मन के एक कोने में हमेशा जीवंत रहते है। 


Comments

Popular posts from this blog

भगवान

किताबों की पढ़ी पढ़ाई बातें अब पुरानी हो चुकी हैं। जमाना इंटरनेट का है और ज्ञान अर्जित करने का एक मात्र श्रोत भी। किताबों में देखने से आँखें एक जगह टिकी रहती हैं और आंखों का एक जगह टिकना इंसान के लिए घातक है क्योंकि चंचल मन अति रैंडम। थर्मोडायनेमिक्स के नियम के अनुसार इंसान को रैंडम रहना बहुत जरूरी है अगर वो इक्विलिब्रियम में आ गया तो वह भगवान को प्यारा हो जाएगा।  भगवान के नाम से यह बात याद आती है कि उनकी भी इच्छाएं अब जागृत हो गई हैं और इस बात का पता इंसान को सबसे ज्यादा है। इंसान यह सब जानता है कि भगवान को सोना कब है, जागना कब है, ठंड में गर्मी वाले कपड़े पहनाने हैं, गर्मी में ऐसी में रखना है और, प्रसाद में मेवा मिष्ठान चढ़ाना है।  सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इंसान इस बढ़ती टेक्नोलॉजी के साथ यह पता कर चुका है कि भगवान का घर कहां है? वो आए दिन हर गली, शहर, मुहल्ले में उनके घर बनाता है। बेघर हो चुके भगवान के सर पर छत देता है।  इकोनॉमी की इस दौड़ में जिस तरह भारत दौड़ लगा के आगे आ चुका है ठीक उसी तरह इंसान भी भगवान से दौड़ लगा के आगे निकल आया है। अब सवाल यह है कि भगवान अग...

कमरा नंबर 220

बारिश और होस्टल आहा! सुकून। हेलो दी मैं आपकी रूममेट बोल रहीं हूं, दरवाजा बंद है, ताला लगा है। आप कब तक आयेंगी।  रूममेट?  रूममेट, जिसका इंतजार मुझे शायद ही रहा हो। कमरा नंबर 220 में एक शख्स आने वाला है। कमरा नंबर 220, जो पिछले 2 महीनों से सिर्फ मेरा रहा है। सिर्फ मेरा।  मैंने और कमरा नंबर 220 ने साथ-साथ कॉलेज की बारिश देखी है। अहा! बारिश और मेरा कमरा कितना सुकून अहसास देता है। बारिश जब हवा के साथ आती है तो वो कमरे की बालकनी से अंदर आके करंट पानी खेल के जाती है। कमरा, जिसपे मेरा एकाकिक वर्चस्व रहा है। कमरा, जिसमे मैं कॉलेज से आते ही धब्ब से बिस्तर पर पड़ के पंखे के नीचे अपने बाल खोल कर बालकनी से बाहर बादल देखा करती हूं। कमरा, जिसे मैंने अब तक अकेले जिया है।  हेलो? हां, मैं अभी ऑडिटोरियम में हूं, तुम कहां हो? मैं होस्टल में हूं। कमरे के बाहर। कितने देर से खड़ी हो? सुबह से ही आई हूं। ऑफिस का काम करा के ये लोग रूम अलॉट किए है।  अच्छा..... यार मैं तो 6 बजे तक आऊंगी। तुम उम्मम्म.... तुम्हारे साथ कोई और है? पापा थे चले गए वो। अच्छा, सामान भी है? हां, एक बैग है। अभी आना ...

टपकता खून

तुम्हारे पर्दे से टपकता खून  कभी तुम्हारा फर्श गंदा नहीं करता वो किनारे से लग के  बूंद बूंद रिसता है  मुझे मालूम है कि  हर गुनाहगार की तरह  तुम्हे, तुम्हारे गुनाह मालूम है पर तुम्हारा जिल्ल ए इलाही बन  सबकुछ रौंद जाना  दरवाजे पर लटके पर्दे पर  और खून उड़ेल देता है।