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Showing posts from July, 2022

पड़ाव

हमें आदत है  अपने आप को  चार दीवारों में सजा के  रखने की।  अपने राज को छत  से चिपका के घंटो तकने की।  हमें आदत है  निगाहें चुराने की और निगाहों  से भागने की। हमें आदत है  बाहर के दुनिया में अपने आपको  लोहे के अदृश्य गोले  में कैद करने की।  बाहरी मंजर एक छलावा है  और हमारा कमरा  सच का आखरी पड़ाव।

वो

एक चाय की प्याली और, रंगीन बोतल से सजे दोनो हाथ, वो लगातार घूम रही हैं। ६ मीटर को वो लपेटे है या,  सिमटी है वो उस दायरे में  यह कहना मुश्किल है। कभी हंस भी देती है। सुबह से शाम और  शाम से रात तक  उसके पैर घर के  हर एक कमरे के फर्श को  चूम कर निकल जाते हैं। तपती दुपहरी में कमरे का  बिस्तर उसको अपने वश में करना चाहता है, पर वो बस एक झपकी के बाद  उसे रात तक अलविदा कह,  दरवाजे से बाहर निकल जाती है।  वह हर रोज आग से खेलती है, अपने आंचल से पसीने हटाती है  फिर, कभी हंस भी देती है। 

राज का पिटारा

 कभी-कभी सुबह का सूरज बड़ा बूढ़ा सा लगता है। वही वेष -भूषा रोज पहने,  मेरे खिड़की पे दस्तक देता है  मानो जैसे कुछ नया  बचा ही ना हो। मैं क्या देखूं? मैं क्या ढूंढूं उसमें? क्या राज है आज के सूरज में? कुछ है भी या नहीं? हर दिन रोज सा लगता है  घिसे-पीटे वक्त के साथ।  कभी समय को प्रोटीन सेक  पीने का मन होता है  जिसके बाद वो छलांग लगाकर भागता है। और उसी दिन थक के  गिर जाता है, और, रेंगना शुरू करता है। वक्त और सूरज दोनो  बूढ़े होते जा रहे है। दोनो के राज के पिटारे  खाली हो रहे हैं।