कभी-कभी सुबह का सूरज
बड़ा बूढ़ा सा लगता है।
वही वेष -भूषा रोज पहने,
मेरे खिड़की पे दस्तक देता है
मानो जैसे कुछ नया
बचा ही ना हो।
मैं क्या देखूं?
मैं क्या ढूंढूं उसमें?
क्या राज है आज के सूरज में?
कुछ है भी या नहीं?
हर दिन रोज सा लगता है
घिसे-पीटे वक्त के साथ।
कभी समय को प्रोटीन सेक
पीने का मन होता है
जिसके बाद वो छलांग लगाकर
भागता है।
और उसी दिन थक के
गिर जाता है,
और, रेंगना शुरू करता है।
वक्त और सूरज दोनो
बूढ़े होते जा रहे है।
दोनो के राज के पिटारे
खाली हो रहे हैं।
2 comments:
Wah.....👍
Thank you ☺️
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