आलस






खुटी पे टंगे कपड़े थक के 
अपना दिन उतार चुके हैं।
पास के कोने में फैली साड़ी
अपना दिन समेटे पड़ी हैं।
चाय की प्याली में आधी बची चाय
पेंदी से चिपकी 
अपनी आखरी दिन गिन रही है।
फ्रिज से निकली बोतल
पसीने टपका के उबल चुकी है।
मोबाइल की बैट्री
पिछले 1 घंटे से 
खून के आंसु रो रही है।
घड़ी की सुई एक ही जगह
पे  टिक टिक किये जा रही है।
रिमोट अपना गला फाड़ के
सांस ले रहा है।
पंखा इतना घूम चुका है
की, वो एक ही जगह पे दिखाई देता है।
किताब के पन्ने उड़ के अपनी
जिंदगी की दास्तान दीवारों को 
सुना रहें हैं।
सूरज आज तेजी से 
अंधेरे में फिसल चुका है।
और चांद उजाले में आने से 
इंकार कर रहा है।

No comments: