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मैं





मैं एक ही साथ हर जगह 
खुद को महसूस कर रही हूं।
कल में भी मैं हूं
जो मेरी आंखों के सामने 
हु-ब-हु तैर रहा है। 
आज में भी मैं 
खुद को लिख रही हूं।
आगे आने वाले 
वक्त मे मैंने खुद को 
लिख रखा है। 
सुबह बिस्तर से जो 
जागी है, वो मैं थी। 
जिसने आईने में बाल 
संवारे है २ घंटे 
पहले वो मैं थी।
रात के सपने में मैंने 
उससे कैसेट ली
पर मैं उससे मिली कहां?
वो रास्ता क्या था?
आस-पास के लोग कहां थे?
मुझे कुछ याद नहीं। 
बस भीड़ में शान्ति थी।
हां, इतना याद है
वो उदास था। 
क्या मैं हर जगह हूं?
क्या मैं सिंहपर्णी का फूल
हो गई हूं?
हवाओं के साथ हर जगह 
जाने लगी हूं?
बीच रास्ते में १से २
२ से ४, ४ से ८, ८ से १६ होके 
हर जगह पहुंच जाती हूं।
मेरी सोच में बहुत बड़ी
और गहरी परत 
बनती जा रही है,
और, मैं हर परत में हूं।
वो सारी जगहें जिनमे मैं थी,
पर, मुझे याद नहीं
और जो मुझे याद है
वो सब एक फूंक से
उड़ते जा रहे हैं। 
और दूसरे ही पल
मैं हर जगह खुद 
को महसूस कर रही हूं। 
पर, आलम यह है की
मैं बस खुद को अभी लिख रही हूं।
तो असल में मैं हूं कहां?





(Time is not real, Govinda. I have realized this repeatedly. And if time is not real, then the dividing line that seems to lie between this world and eternity, between suffering and bliss, between good and evil, is also an illusion).
LINE FROM THE NOVEL SIDDHARTHA WRITTEN BY HERMANN HESSE

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