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घर-घर





ये चाचा, चाचा.... मोहन अपनी तेज आवाज से रामप्रसाद को दरवाजे पे खड़ा हो पुकार रहा था। 
अरे! सुन रहे है की नहीं?
का हो गया है, लगे हो गला फाड़े। रामप्रसाद घर से निकलते निकलते बोलते है।
अरे राजुवा बियाह करके लइकी ले आया है। 
रामप्रसाद- सबेरे सबेरे पी के आया है का?
मोहन - नहीं चाचा हम सच कह रहे है। अपना आँख से देख के आ रहे है।
रामप्रसाद बस खड़े रहे। वो मोहन को ऐसे देख रहे थे जैसे वो पता नही क्या कह दिया है। वो अपने कानों पे भरोसा नहीं कर पा रहे थे। 
राजू गांव का सबसे होनहार लड़का था। बड़ा ही शांत स्वभाव का इंसान। शान्ति से रहना, किसी से झगड़ा ना करना और सादे से लिबास में रहना।   गांव में उसकी यही पहचान थी। गांव के सारे लोग उसका ही उदाहरण अपने बच्चों को देते। देखो, राजू की तरह बनो। राजू ये राजू वो सुन सुन के गांव के बच्चे तंग हो गए थे पर उनके मां बाप उदाहरण देते ना थकते थे। 
काठ मार दिया का आपको? मोहन ने आवाज ऊंची करके रामप्रसाद को वर्तमान में लाने की कोशिश की। 
मुखिया जी कैसे है? रामप्रसाद ने अचानक से पूछा।
मोहन - ठीक तो नहीं दिखे वो हमको। हम ज्यादा देख भी नहीं पाए। वो बस बाहर बैठे थे। 
रामप्रसाद- चल, चल, चल, जल्दी चल।
वो दोनो तेज गति से मुखिया जी के घर की तरफ भागे। 

मुखिया जी को मुखियाई करते हुए 7 साल हो गया था। उनके पिताजी भी मुखिया थे। फिर उसके बाद वो मुखिया बने। मुखिया जी इन 7 सालों में गांव के लिए कभी कभार कुछ कुछ कर दिया करते थे जिस वजह से उनका भरोसा लोगों में बचा रह जाता था। ना के बदले कुछ भी सही। वैसे तो मुखिया जी बड़े खुले विचार के व्यक्ति रहे। जैसे उन्होंने कभी भी अपनी बेटी को पढ़ने से नहीं रोका बरसते की पढ़ाई घर से हो। वो अपनी पत्नी को पूरी आजादी दे रखे थे गांव में घूमने की घूंघट के साथ। उनके यहां का बना खाना नौकर लोग भी खाते थे अपनी अपनी थाली में जो वो घर से लाते थे। और अगर किसी दिन गलती से थाली छूट गई होती तो पत्तल पर खाते थे पर खाते जरूर थे। उन्हें बस आधुनिक विचार धारा से बहुत तकलीफ होती थी। आधुनिक विचार धारा कहने का यह मतलब है की ऐसे विचार जो उनके विचारों के खिलाफ हो या मेल ना खाते हों। जैसे लड़कियों का पैसा कमाना। नए लड़कों का स्टाइल में चुटिया कटा देना। मांस मछली खाना, मोबाइल में घुसे रहना और प्रेम विवाह करना। प्रेम विवाह से उन्हें बड़ी परेशानी होती थी। वो जब सुनते की कोई प्रेम विवाह किया है तो उसे बड़े ताने कसते थे। लड़के के साथ साथ उसके बाप को भी सुना दिया करते। 
कैसे बाप जो एक लड़का नहीं संभाला गया? यह उनका पसंदीदा वाक्य हुआ क्या करता था। 
मोहन और रामप्रसाद मुखिया जी के घर के पास पहुंचे ही थे की उन्हें कुछ लोग उनके घर के सामने दिखाई दिए। 
रामप्रसाद- मामला बहुत गड़बड़ हो गया है।
मोहन- हां लग तो रहा है। 
दोनों दूर से देख रहे थे। क्योंकि अभी घर के अंदर जाने का सही समय नहीं था। बड़ी सी गाड़ी उनके घर के बाहर लगी थी जिसके शीशे में गांव के बच्चे अपना मुंह देख रहे थे और हंस रहे थे। उन्हें अपना चेहरा शीशे में छोटा दिख रहा था और मजे की बात यह थी की वो थोड़ी दूरी पर खड़े होते तो पूरे पूरे खुद को आईने में देख पा रहे थे। यह उन्हे किसी जादू सा लग रहा था। चार पांच बच्चे कतार में खड़े होकर अपने आपको देखने का खेल खेल रहे थे। एक दो लोग मुखिया जी के पास बैठे थे। मुखिया जी कुर्सी में मुर्दा के जैसे पड़े हुए थे। उन्हें अपने आस पास की सुध बुध नहीं थी। कौन आ रहा है, कौन उनके पास बैठा है? कौन क्या कह रहा है वो नहीं जानते थे। वो बस गुम थे। कहां? पता नहीं।
मोहन- अंदर चले का चाचा?
रामप्रसाद - ना, अभी उन सब को चल जाने दो तो चला जायेगा। थोड़ा खलिहर देख के जाना ठीक रहेगा। राजू नहीं दिख रहा है?
मोहन - होगा अंदर, मुंह दिखाने लायक काम भी तो नहीं किया है। 
रामप्रसाद - तुम कब देखा इनलोगों को?
मोहन - हम निकले थे सुबह सुबह ढीला होने। खेत से आए तो देखे की बड़ा गाड़ी लगा हुआ है और दरवाजे पर राजू खड़ा था लड़की के साथ और अंदर से चाची के रोने का आवाज आ रहा था। 
रामप्रसाद - अब नहीं रो रहा है कोई?
मोहन - अरे केतना रोएंगे जो होना था ऊ तो हो गया। 
रामप्रसाद- अरे बाबू अभी कहां हो गया अभी तो शुरू हुआ है। उन्होंने चतुराई से कहा। चल अब अंदर चलते है। 
दोनों धीरे से घर के अंदर दाखिल हुए और बाहर लगे कुर्सी पर मुखिया जी के सामने बैठ गए। 
रामप्रसाद - का हुआ मुखिया जी? 
यह सवाल तब नहीं पूछा जाता जब आपको सच में कुछ जानना हो पर असल में तब पूछा जाता है जब आपको चुटकी लेनी होती है। मुखिया जी आँखें जमीन में गाड़े रखे। उन्होंने कोई जवाब नही दिया। 
रामप्रसाद ने बात आगे बढ़ाने के लिए कहा " जाने दीजिए इतना मत सोचिए। लड़का तो आप ही का है ना। अब जो हो गया सो हो गया। 
इतना सुनने के बाद भी मुखिया जी ने एक शब्द तक नही बोला और ना ही अपनी आँखें ऊपर की। थोड़ी देर रुकने के बाद दोनो वहां से चल दिए।
रास्ते में रामप्रसाद ने मोहन से पूछा? 
कहां की लड़की है?
मोहन - इतना तो नहीं जानते है।
रामप्रसाद - कौन से जात की है?
मोहन- मुस्लिम है।
रामप्रसाद धब् से जमीन पर बैठ गए। उन्होंने अपना हाथ सिर पर रख लिया और बोले " भरसक मुखिया जी के नागफास मारले है। जो आदमी अपना पूरा जिनगी प्याज तक नहीं खाया है उसको अब क्या दिन देखना पड़ रहा है"। 
मोहन- अब छोड़िए इतना क्या सोचना है। जो हो गया सो हो गया।
रामप्रसाद - तुम सब तो खुश हो रहा होगा अंदर अंदर मौका चाहिए था एक और लो मिल भी गया। 
मोहन - अरे हम ऐसा थोड़े कर रहे है। 
रामप्रसाद - आ तुमको का लगता है हम होने देंगे। देखो मोहन इ सब के लिए तुम्हारा मां बाप हां किया है काहे कि तुम जात में कर रहे हो। अगर कुजात रहता तो पहले हम ही तुम्हारा मुड़ी काट देते। हमको मुखिया जी मत समझना। हम सिर पर हाथ धर के बैठे नहीं रहेंगे। इ सब हम बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर सकते है। वो चीखते हुए बोले जा रहे थे।
मोहन - काहे बीपी बढ़ाए हुए है। हम खुदे नहीं करते। 
रामप्रसाद - मां बाप का तुमलोग गलत फायदा उठाता है। जितना छूट देते है उतना कपार पर चढ़ जाता है। कोई माना किया है जी प्रेम विवाह करने से, करो पर जात में करो। इतना आजादी है तुमलोग को तब तो इ हाल है। हमलोग शकल तक देखे थे बियाह के पहले एक दूसरे का?
वो बस बोले जा रहे थे।
मोहन उनकी बात सुन रहा था। इस बार वो कुछ बोला नहीं। बोलने का भी कोई मतलब नहीं था। वो सुनते ही नहीं। अभी तो बिल्कुल नहीं। मोहन बस उनके साथ चल रहा था। उनकी बातें सुन रहा था। कही कहीं मुंडी हिला देता जिससे रामप्रसाद को लगे की वो उन्हें सुन रहा है। रामप्रसाद बोले जा रहे थे उनकी आवाज रास्तों से टकरा के पीछे धूल खाती जा रही थी। 




Comments

Akash Tripathi said…
Bahut badiya interesting jo soch hota hai ekdm vaisa hi likha hai

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