वस्तुतः
फरेब
तुम्हारे सवालों के जवाब लिखने बैठी हूं
अपने ही घाव कुरेदने बैठी हूं।
क्या ढूंढते थे मुझमें तुम?
उसका हिसाब लिए बैठी हूं।
तुम्हारे हँसी, आँसू सब फरेब थे
मैं आईना अपने साथ लिए बैठी हूं।
भारीपन
कभी-कभी दिल में एक
भारीपन सा महसूस
होता है,
इतना भारी की उसका
वजन संभालना मुश्किल
हो जाता है
और, फिर रोने का मन
करता है।
जोर-जोर से रोने का मन।
क्यों?
पता नही।
रोना किस बात पे आता है?
ठीक-ठीक कहना मुश्किल है
की रोना किस बात पे आता है।
और दुविधा यह है की
जब दिल रोना चाहता है
तो ठीक उसी वक्त आंसू
नहीं निकलते।
वो इकठ्ठा होते है एक जगह
ज्वालामुखी की तरह
फूटने के लिए।
जब हम लौटी
जब हम लौटी ऊ जगह पे वापस
त तू वहां मिलब का
ओ ही घर, ओ ही अंगना में?
जब हम बइठी ऊ घर में
त तू हमरा दिखब का
ओ ही घर में
अंगना लिपइत
छठ के तैयारी करीत
आ पूरा घर के ज़िमेदारी
संभलले,
दउरा साजित, टिकरी ठोकित
चूल्हा भी बइठल?
जब हम बैइठी बरामदा में
त तू गीत गावित मिलब का?
सच, कल का
मैं तुम्हे देखती हूं
तुम्हारे कल में
बेबस और लाचार
अपनी एक बात
रखने के लिए
मसक्त करते हुए।
मैं तुम्हे देखती हूं
खुद को खींचते हुए
अपने आप पे भरोसा
दिलाने के लिए।
मैं तुम्हे देखती हूं
दो मुहाने पे
जहां से पीछे जाना
और आगे आना दोनो
मुश्किल है।
मैं तुम्हे देखती हूं
आंसुओं के समुंदर में
जो हर रोज गहरा
होते जा रहा है।
मैं तुम्हे देखती हूं
आज में खड़े होके
कल को समेटने की
बेबुनियाद कोशिश करते हुए।
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