उधेड़ बुन





बहुत अंधेरे में रहा है वो
दिन के उजाले में 
ढूंढता है खुद को 
रात, थक के सो जाता है।
एक उधेड़ बुन सी जिंदगी है उसकी 
अपनी खुशियां दरारों में भर के 
फर्श सजाया करता है।
तपती धूप में चला है वो
बिना छांव की तलाश में
थक के पेड़ की ओट में 
बैठ के, ठंडी हवा की चाह 
रखता है
तो वो क्या गलत चाहता है!


4 comments:

Akash Tripathi said...

Bahut badhiya

Legit Info said...

Love your writings. 🤩🤎❤. Just keep it up.

Abhishek said...

Bhut badiya🙌👏

suruchi kumari said...

Thank you so much 😊