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Showing posts from July, 2024

कमरा नंबर 220

बारिश और होस्टल आहा! सुकून। हेलो दी मैं आपकी रूममेट बोल रहीं हूं, दरवाजा बंद है, ताला लगा है। आप कब तक आयेंगी।  रूममेट?  रूममेट, जिसका इंतजार मुझे शायद ही रहा हो। कमरा नंबर 220 में एक शख्स आने वाला है। कमरा नंबर 220, जो पिछले 2 महीनों से सिर्फ मेरा रहा है। सिर्फ मेरा।  मैंने और कमरा नंबर 220 ने साथ-साथ कॉलेज की बारिश देखी है। अहा! बारिश और मेरा कमरा कितना सुकून अहसास देता है। बारिश जब हवा के साथ आती है तो वो कमरे की बालकनी से अंदर आके करंट पानी खेल के जाती है। कमरा, जिसपे मेरा एकाकिक वर्चस्व रहा है। कमरा, जिसमे मैं कॉलेज से आते ही धब्ब से बिस्तर पर पड़ के पंखे के नीचे अपने बाल खोल कर बालकनी से बाहर बादल देखा करती हूं। कमरा, जिसे मैंने अब तक अकेले जिया है।  हेलो? हां, मैं अभी ऑडिटोरियम में हूं, तुम कहां हो? मैं होस्टल में हूं। कमरे के बाहर। कितने देर से खड़ी हो? सुबह से ही आई हूं। ऑफिस का काम करा के ये लोग रूम अलॉट किए है।  अच्छा..... यार मैं तो 6 बजे तक आऊंगी। तुम उम्मम्म.... तुम्हारे साथ कोई और है? पापा थे चले गए वो। अच्छा, सामान भी है? हां, एक बैग है। अभी आना ...

मैं ठीक हूं, तुम कैसी हो

@ayee_saurabh फोन के नोटिफिकेशन से टपका तुम्हारा मैसेज जिसमे तुमने मुझसे पूछा की मैं कैसा हूं?  मैं कैसा हूं?  मैं इस सवाल का जवाब पता नहीं कितने दिनों से देना चाहता हूं। मैं यह बताना चाहता हूं की, मुझे कुछ दिनों से अच्छा नहीं लग रहा। घर में बैठे-बैठे अक्सर खिड़कियां निहारता रहता हूं। बाहर पता नहीं क्या ढूंढना चाहता हूं, मैं खुद नहीं जानता। परसो शाम मैं छत पर था और अचानक से मुझे बादल डरावने लगने लगे। बादल बहुत हल्के थे। उन्हें हवा आसानी से उड़ा के ले जा रही थी। आसमान कहीं-कहीं से साफ था। आसमान के दूसरे कोने से एक पीली लाइट आते दिखी थी, थोड़ी देर में समझ आया की वो प्लेन है। सबकुछ अच्छा होते हुए भी आसमान मुझे डरावना लग रहा था। मैं जल्दी से नीचे आ गया।  कुछ दिनों से अंधेरे में मुझे शक्लें दिखाई देती हैं। ऐसा लगता है कोई उस अंधेरे से कमरे में सोफे पर बैठा है। जब मैं आईने में देखता हूं ऐसा लगता है कोई पीछे खड़ा है। बाद में आईने में देखने पर वहां कुछ नहीं दिखता। घर के हर कुर्सी पर कोई अपना बैठा हुआ दिखता है जो अब मेरे पास नहीं है। आम तौर पर मैं हर रोज 11 बजे रात तक जागता हूं। क...

साधारण

कितना साधारण है रोज मर्रा की जिंदगी में  मौत की खबरें देखना और सुनना। कितना साधारण है दिन दहाड़े चोरी  की खबरें पढ़ना। कितना साधारण है पानी में बढ़ते आर्सेनिक  की मात्रा को नजरअंदाज करना। कितना साधारण है हर साल  बारिश के महीने में पुलों का धराशाई हो जाना। कितना साधारण है बाढ़ में  लोगों से उनका बसेरा छीन जाना। कितना साधारण है गर्मी के दिनों में पानी की किल्लत सहना। कितना साधारण है खुली हवा में सांस ना लेना। कितना साधारण है रोड पे कूड़े का अंबार होना। कितना साधारण है महंगाई का आसमान छूना। कितना साधारण है परीक्षाओं में अनियमितता  अगर कुछ असाधारण है तो वो है संप्रदाइक दंगे  और उस से उपजा साधारण लोगों की जाती जानें। असाधारण है अंतर्जातीय विवाह  पर साधारण है उसके अग्नि से निकले  अपने आपको बचाती लपटे।  असाधारण है विदेशों में घटने वाले किस्से  और साधारण है अपने ही घर को सुलगता हुआ देखना। 

टूटे दिल

टूटे दिल कहां जाते हैं?  वो दुनिया का कौन सा कोना पकड़ के रोते हैं  क्या वो पेड़ की किसी टहनी  पे लटक के अपने को जाते हुए देखते हैं? क्या वो बालकनी की रेलिंग  पे बैठ के खिड़की से अंदर झांकते हैं? क्या वो फोन के नोटिफिकेशन की  घंटी पे पांव रख के फोन में घुसते हैं? क्या वो सपने में तैर के  इंसान के मन तक जाते हैं? क्या वो आंखों में बस के  पानी जैसे टपक जाते हैं? या दूर कही बैठ के  उसके ही सपने देखते हैं!