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Showing posts from November, 2021

आ सखी तोहे सजा दूं

 श्याम, मनोहर सुंदर चेहरे पर  चांद सी रौशनी उतार दूं, आ सखी तोहे सजा दूं। नए कपड़े, जेवर, तेल फूलेल से  तेरा अंग अंग महका दूं, आ सखी तोहे सजा दूं। तेरे पैरों में आलता और पाजेब की घुंघरूओं से सारा घर छनका दूं, आ सखी तोहे सजा दूं। तेरे मुखड़े को आंचल में छुपा के  तुम्हे डोली में बिठा  सजना संग विदा करा दूं आ सखी तोहे सजा दूं।

मां

 जब भी कभी मां किसी और के साथ हंसते, खिलखिलाते दिखती हैं तो, उस वक्त बस यही ख्याल आता है कि वो मुझसे दूर जा रही हैं। वो हंसता हुआ चेहरा मेरे साथ क्यूं दो बाते नहीं कर रहा? क्यूं सारी की सारी मुस्कुराहट किसी और पे उड़ेली जा रही हैं? कितना गलत है यह सब? क्या मम्मी मुझसे प्यार नहीं करतीं? क्या उन्हे मेरी जगह कोई और अच्छा लग रहा है? और न जाने क्या - क्या सवाल मेरे मन में घूमते हैं।  मां हर किसी की जिंदगी का वो मुख्य शख्स है जिसके आंचल में छिप के आप रोते है। रोना इसलिए क्यूंकि हम पूरी दुनियां के सामने नहीं रोते। हम चट्टान की तरह जड़ रहते है। बिना कुछ बोले बिना अपनी तकलीफ अल्फाज़ में बयां किए, हम बस दिखावा करते है।  मां का आंचल उन सारे दिखावे को पर्दे के बाहर कर देता है और, हम सूर्यमुखी के फूल की तरह उनके प्यार भरे किरणों की तरफ मुंह कर लिया करते हैं। किसी और के साथ वो हमदर्दी उनके आंचल में किसी और के आने का संकेत दे जाती है, जो मन के कोने में उदासी की लो जला जाती है।  क्यूंकि मां हमेशा पुरी की पुरी चाहिए होती है।  वो जिस भी वक्त मुस्कुराए वो वजह मेरी हो। उनका आंचल मे...

Half truth

  Standing on the brink I am observing all the days and nights that I have spend  telling the half truth and masking the othe half  under my smile. Those unsaid words  have found voice today. They are gabbing around the corner having a cunning eye  they are following me, and tearing me apart. My body is standing on the brink and my mind is drowning.

गांव का छठ

 छठ लोक आस्था का महापर्व है। छठ पूरा का पूरा इमोशन है। छठ करने की एक लम्बी तैयारी होती है, और इसकी शुरुआत गेंहू चुनने और सुखाने से होता है। गेहूं सुखाने और उसे कौवो से बचाने कि जिम्मेदारी मैने बचपन में सहर्ष स्वीकारा है। गांव में छत के ऊपर के घर का छज्जा निकला हुआ था, जिस वजह से छत के किनारे में छाव बनी रहती थी। सुबह में पश्चिम की तरफ चेहरा करके हाथो में डंडा लेकर बैठा करती थी। कुछ किताबे भी हुआ करती थी जिन्हें शायद ही मैने कभी छुआ हो। गिलहरी के आने पर जोर से डंडा पटका करती थी। कभी कभी तो ' ये गिलहरी' करके चिल्लाती भी थी। सूरज के चढ़ने के साथ साथ हम छत के कोने बदला करते, ताकी छाव में बैठा जा सके। सूर्य जब पश्चिम का रस्ता पकड़ता तो हम पूर्व की तरफ मुंह करके बैठते। बीच बीच में खाना खाने के लिए एक छोटी ब्रेक लिया करते थे।  गेहूं सुखाने के बाद दूसरा पड़ाव है उसे पीसना। गेहूं मील में नहीं दिया जाता था। घर की सारी औरतें नहा के घर में ही जाता मे गेहूं पीसा करती थी। जाते के दोनो तरफ बैठी फुआ, मम्मी, मामा, मैं और दीदी गेहूं को गीत सुना के उसे आटे में बदलता देखते थे।  छठ मुख्य रूप ...